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सुबह की गोरी
Posted On 17/09/2007 13:49:41 by amazingamit

Wonderful poetry, author is unknown to me.


रात की काली चादर ओढ़े
मुँह को लपेटे
सोई है कब से
रूठ के सबसे
सुबह की गोरी
आँख न खोले
मुँह से न बोले
जब से किसी ने
कर ली है सूरज की चोरी

आओ
चल के सूरज ढूंढे
और न मिले तो
किरन किरन फ़िर जमा करें हम
और इक सूरज नया बनाएँ
सोई है कब से
रूठ के सबसे
सुबह की गोरी
उसे जगाएँ
उसे मनाएँ



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